सुनील कुमार/एफएमटीएस न्यूज़/बिहार
पैदल चला,लालटेन में पढ़ा ,मेहनत की,आईपीएस बना,माँ-बाबा का सपना पूरा किया लेकिन आज इस आशीष को ‘आशीष’ देने के लिए’माँ ‘नहीं रही…
कहाँ से शुरू करूँ,कहाँ से ख़त्म,कुछ समझ में नहीं आया । यह कहानी एक बहुत ही साधारण परिवार के बेटे की है जमुई के एक छोटे से गांव सिकंदरा (शायद आपने नाम सुना होगा) में पले बढे इस आईपीएस अधिकारी की सफलता की कहानी काफी दिलचस्प है।
9 वीं की पढाई मुंगेर के संग्रामपुर स्थित सरकारी स्कूल से पूरी की ।।उबड़ -खाबड़ रोड,हाथ में अलुमुनियम का बस्ता और बस्ते में सलेट,कॉपी,किताब व दो बाई दो का बोड़ा,एक किलोमीटर तक पैदल चलकर स्कूल जाना,झाड़ू लना,फिर मस्त बस्ते से वो दो बाई दो का बोड़ा निकालकर बिछाना फिर पढाई करना यह सब आज भी इन्हें याद है। तकलीफ तो थी लेकिन मास्टर जी अच्छे थे,इसलिए बोड़ा पर बैठने वाली बात पर आज भी इन्हें गुस्सा नहीं आता। ठेंठ गवई अंदाज में कहा कि मास्टर साहब पढ़ाते अच्छा थे।
बिजली तो मानो उन दिनों सपने जैसा था। लालटेन वाला युग था गांव में। 10 वीं की पढाई श्री कृष्ण विद्यालय सिकंदरा व 12 वीं की पढाई धनराज सिंह कॉलेज ,सिकंदरा से पूरी की।पिता ब्रजनंदन प्रसाद सिंचाई विभाग में क्लर्क थे,माँ स्वर्गीय मुद्रिका देवी ,तीन भाई व तीन बहन का पूरा परिवार था।सभी भाइयों ने संघर्ष के दौर को देखा था।
बड़े भैया संजय कुमार (रेलवे में ए.एस .एम), मंझले भैया डॉ.मुकेश कुमार(आर्मी हॉस्पिटल,बीकानेर) में पोस्टेड हैं। मैं छोटा था। इसलिए सभी का सहयोग भी काफी मिला। फिर आगे की पढाई के लिए बाहर जाने की सोचता रहा। उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाने की जुगाड़ में लगा रहा।
2001 में जेएनयू के एंट्रेंस एग्जाम में आल इंडिया टॉपर रहा।स्कालरशिप मिली और मैंने फ्रेंच विषय में नामांकन लिया। मात्र 1200 रुपए में दिल्ली में जिंदगी कैसे कटती। मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। 4 साल आल इंडिया रेडियो में काम की। आर्थिक तंगी को लेकर कभी मै बिचलित नहीं हुआ बल्कि हालात से लड़कर परिस्थितियों को अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश की।
मैं डरा नहीं,लड़ा। संघर्ष के न जाने कितने बसंत को देखा होगा। अब बिना किसी भूमिका के मैं उस व्यक्तित्व का नाम बता ही देता हूँ।बस एक लाइन और,फिर डायरेक्ट बात। यह वर्दी मेरी आन बान और शान है मेरी पहचान का तमाशा दुनियां को ना दिखा।
हाँ,मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे शख्सियत की जिसने आज भी ज़मीन की सच्चाई को ही अपने जीने का मकसद बना लिया।कुमार आशीष,एक ऐसा पुलिस कप्तान जिसने पुलिसिंग के मायने ही बदल डाले।
आज इनकी लोकप्रियता इस बात की बानगी है कि अगर आप पुलिस अच्छे हैं तो समाज अच्छा होगा।कहा जाता है की अगर इंसान में संघर्ष और कठिन मेहनत करने की क्षमता हो तो दुनिया में ऐसा कोई मुकाम नहीं है जिसे हासिल ना किया जा सके । कवि रामधारी सिंह दिनकर ने सही ही कहा है की “मानव जब जोर लगाता है ,पत्थर पानी बन जाता है”। कोई भी माँ बाप कितने भी तकलीफ में हो पर सबका सपना होता है की उनका बच्चा खूब पढाई करे।
आगे कुमार आशीष बताते हैं कि प्लस टू के बाद आगे की पढाई के लिए उन्होंने अपना कदम दिल्ली की ओर बढ़ाया। जेएनयू में दाखिला लिया। फ्रेंचभाषा में बी.ए, एम. ए, एम. फिल व पीएचडी की पढाई की,हालाँकि डिग्री लेने के लिए असाइनमेंट जमा करना बाकि है।जूनियर रिसर्च फेलोशिप मिला,फ्रेंच की पढाई की। घर से पापा या भैया ने कभी प्रेसर नहीं दिया। शादी वादी के लिए किसी ने जल्दी नहीं दिखायी।
सभी ने भरपूर सहयोग किया। 2006 में फ़्रांस गए। कुमार आशीष ने बताया कि जब वे फ़्रांस गए तो वहां एक फ्रेंच परिवार थी। जिन्हें भारत का मतलब सिर्फ राजस्थान, दिल्ली, केरल व गोवा ही पता होता था। उस परिवार में एक आंटी थी जिनका नाम निकोल था।जब मैंने बिहार की संस्कृति व छठ पूजा के बारे में बताया तो वो काफी हैरान हुई।
उन्होंने कहा कि तुम इसपर लिखो।फिर जो उन्होंने कहा वो मैं आपको बताता हूँ। पता है तुम्हारा बिहार क्यों पिछड़ा है क्योंकि वहां के लोग अपनी प्रतिभा को अपने राज्य के विकास में नहीं लगाते न ही योगदान देना चाहते हैं। उनका इशारा ब्रेन ड्रेन की तरफ वही से मैंने सोचा कि ये लेडी तो ठीक कह रही हैं।
मैंने तय किया कि मैं अपने गांव जाऊंगा,समाज के लिए कुछ करूँगा। फिर मैं बापस भारत आया और फ्रेंच में छठ के ऊपर 16 पेज का आर्टिकल लिखा जो आई.सी.सी आर में छपी। फिर 2 साल फ्री में जेएनयू में ही जूनियर्स को फ्रेंच भाषा पढाई ।
सिविल सेवा की तैयारी शुरू की। आईएएस बनना चाहते थे लेकिन आईपीएस बने।आईएएस क्यों,तब उन्होंने बताया कि 1997 में जब पहली बार सिकंदरा में डीएम राजीव पुन्हानि ने मुझे प्रश्न प्रतियोगिता में फर्स्ट प्राइज दिया तो मैं सोचता था कि मैं भी बड़ा होकर आईएएस बनूँगा। मेरी सोच को फॅमिली व भैया का सपोर्ट मिला लेकिन सिलेक्शन आईपीएस के लिए हुआ लेकिन सोच वही कि जिस नौकरी में जाऊंगा अपना बेस्ट देने की कोशिश करूँगा।
बिहार के विकास की सोच थी,सो कैडर भी बिहार मिला।फिर मैंने 2012 में भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन किया । मोतिहारी में ट्रेनी रहा। जून 2014 में एसडीपीओ दरभंगा के रूप में पहली पोस्टिंग हुई। काम किया,नाम हुआ। सोशल मीडिया से लोग जुड़े और एक लंबा कारवां बनता चला गया। अपराधी व मनचले अपने अपने बिल में दुबक गए।फिर हुआ ट्रांसफर।
बेगुसराय के बलिया में पोस्टिंग हुई। काम का टेम्पो यहाँ भी कम नहीं हुआ और 1 अगस्त 2015 को मधेपुरा एसपी की कमान सौंप दी गयी। कल्चरल पुलिसिंग व कम्युनिटी पुलिसिंग के बदौलत मधेपुरा के लोगों को अहसास कराया कि ‘मैं हूँ न’। स्पोर्ट्स के बूते युवाओं को जोड़ा। इसी बीच एसपी कुमार आशीष को ‘आशीष’ देने के लिए माँ नहीं रही।
ये वो दौर था जिसने कुमार आशीष को बुरी तरह से तोड़ दिया। माँ,स्वर्गीय मुद्रिका देवी जिनके ममता के आँचल में पल बढ़ कर कुमार आशीष बड़े हुए,बुरे वक़्त को देख अपने माँ-पिता के लिए कुछ अच्छा करना चाहा। बेटा आईपीएस हो चूका था।लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। माँ चली गयी,उनकी याद आज भी उस गीत के दो बोल’रूठके हमसे कहीं जब चले जाओगे तुम,ये ना सोचा था कभी इतने याद आओगे तुम’ आशीष याद करके भावुक हो जाते है और भावना की आँसू आँखों से छलक पड़ता है।
फिर नालंदा में बतौर पुलिस कप्तान इनकी पोस्टिंग हुई।आते ही सफलताओं के झंडे गाड़े और कम ही समय में लोगों के चहेते एसपी बन गए। मैं भी मिला,काम करने के अंदाज़ को समझा। अच्छा कर रहे है बाकि एक पत्रकार की हैसियत से जो दिखता है वो लिखता हूँ।जब अच्छा तो अच्छा,बुरा हो तो बुरा सुनना ही पड़ेगा।
अब सर सुनते भी है और समझते भी है। बाकि समझने व समझाने के लिए जनता कुमार आशीष से फेसबुक से जुडी है। एक अच्छा प्लेटफॉर्म है। सुनवाई भी होती है अगर नहीं हुआ तो थानेदार की सुनवाई सबसे पहले होती है। जनता इनके लिए ज्यादा प्रिय है।फिर अप्रैल 2016 में शादी हुई।काफी धूम धाम से शादी सम्पन्न हुई। लेकिन जाइयेगा नहीं,पंडित जी का मन्त्र ख़त्म हुआ है क्लाइमेक्स अभी बाकि है।
आईपीएस कुमार आशीष और दिल्ली उच्च न्यायालय की अधिवक्ता देव्यानी शेखर के परिणय सूत्र में बंधने के पीछे की कहानी को आज मैंने उन्ही की जुवानी सुनी। आजकल की युवा पीढ़ी का दम फूल जायेगा।
एक साधारण परिवार से निकलकर इस तरह सूबे का चर्चित आईपीएस अधिकारी बनकर लगातार सफलता हासिल करना कुमार आशीष के लिए शायद इतना आसान न होता अगर पिछले आठ साल से कुमार आशीष और देव्यानी शेखर एक- दूसरे की ताकत न बनते।
सर तो आईआईटी दिल्ली में फ्रेंच पढ़ाने गए थे और मैडम पढ़ने। पढाई लिखाई ख़त्म हुआ और दोस्ती कब प्यार में बदला पता ही नहीं चला। प्यार हुआ लेकिन ‘टू स्टेट’ वाली कैरेक्टर इनके सामने आ गयी। दो संस्कृति दो कास्ट,कभी लगा कि कैसे मनाये अपने अपने माँ -पिता को ,समाज को,उस रूढ़िवादी सोच को।
कुमार आशीष इसी बीच संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर आईपीएस बन गए व वही दूसरी तरफ देव्यानी ने अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में ग्रेजुएशन के बाद प्रतिष्ठित बीएचयू से कानून की पढ़ाई की और करीब दो दशकों के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए स्वर्ण पदक प्राप्त किया। फिर कप्तान की माँ मान गयी।दोनों परिवारों की प्रतिष्ठा को और अधिक ऊंचाई तक ले जाने का एहसास अभिभावकों को आशीष और देव्यानी को परिणय सूत्र में बंधने को राजी कर गया। शादी से पहले ही बहु को आशीर्वाद दिया।
इस दुनिया में माँ का ना रहना कुमार आशीष को तो खलेगा ही लेकिन पिता के मज़बूतकंधे का सहारा व भाई बहनो का प्यार व सपोर्ट और पत्नी का साथ शायद इस टीस को कुछ हद तक पाट सके।
देव्यानी शेखर समस्तीपुर की मूल निवासी है।पिता बैंक मैनेजर रहे हैं और माता फैशन डिजायनर। लिखते लिखते तो मैं भी भावुक हो गया कि जिस हँसते हुए एसपी को आज मैं दिन भर देखता हूँ वो सही में डाउन टू अर्थ है।
लास्ट में वे कहते हैं कि स्कूल प्राइवेट हो या सरकारी , इच्छाशक्ति खुद की होनी चाहिए तभी सफलता की राह आसान हो जाती है। तो दोस्तों सफलता कोई एक रात का खेल नहीं है जो पलक झपकते ही किस्मत बदल जाएगी , आपको कठिन मेहनत करनी होगी खुद को संघर्ष रुपी आग में तपाना होगा , फिर देखिये दुनिया आपके कदमो में झुक जाएगी ।